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बुद्धिमानों की मूर्खताएँ

सुरेन्द्र शर्मा

प्रकाशक : पूजा प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2003
पृष्ठ :188
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 3434
आईएसबीएन :00000

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प्रस्तुत है हास्य व्यंग्य रचनाएँ....

Buddhimano ki Murkhtayein a hindi book by Surendra Sharma - बुद्धिमानों की मूर्खताएँ - सुरेन्द्र शर्मा

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश



यह धरोहर है मेरे पिता की,
जिन्होंने मेरी पहली साँस से
लेकर अपनी अंतिम साँस तक
मुझे प्यार किया।

यह थाती है मेरी माँ की, जिसके
दिए संस्कार मेरे अंतिम संस्कार
तक साथ रहेंगे।
यह प्रेरणा है उन सबकी, जो
सिर्फ मुझे चाहते हैं और मुझसे
कुछ नहीं चाहते।

समर्पित है ये लेख
बुद्धिजीवियों, साहित्यकारों, राजनेताओं
धर्मगुरुओं, देवी-देवताओं,
यहाँ तक कि धरती पर विद्यामान
सभी भगवानों को
कि अगर ये सब नहीं होते तो ये लेख
मुझे लिखने नहीं पड़ते और आपको
पढ़ने नहीं पड़ते !

भरपूर स्वागत


सुरेंद्र शर्मा विश्वख्याति के लोकप्रिय कवि हैं। लाखों श्रोता उन्हें साँस रोककर सुनते है। उनके चुटीले व्यंग्य श्रोताओं के दिलो-दिमाग़ को पहले तो जगाते हैं, फिर हँसाते हैं.....उनसे छतफाड़ ठहाके लगवाते हैं, पर घर लौटकर सुरेंद्र शर्मा के कटाक्षों को जब वे सत्ता-व्यवस्था, संसार-व्यवहार की यातना और चरित्रहीनता से टकराते देखते हैं, तो हँसते नहीं, सोचना शुरू करते है, और मौक़ा मिलते ही उन्हें दोबारा सुनने आते हैं ! हमेशा सुनने के लिए अधीर रहते हैं।

ऐसे में सुरेंद्र शर्मा का यह गद्य एक दुर्लभ और विलक्षण घटना है। इसलिए भी मुझे उनकी इस पुस्तक में गद्य का नया रूप देखने को मिला है जिसने वस्तुशिल्प और भाषा, सभी स्तरों पर मानवीय संवेदना को झकझोर दिया है। आज के व्यक्ति की दुविधा, असमंजस-भरी ज़िंदगी, संशय, संत्रास, पीड़ा और दुख इंसान के पैरों तले की ज़मीन छीन रहे हैं।

मौजूदा खुली बाज़ार-व्यवस्था में जहाँ प्रत्येक वस्तु बिकाऊ है, वहीं मनुष्य की संवेदनाएँ भी कमोडिटी बना दी गईं हैं। मानवीय रिश्तों को भी तराजू पर तोला जा रहा है। जनतांत्रिक संस्थाओं को निरंतर व्यवस्था द्वारा भ्रष्ट किया जा रहा है। दुविधाओं के ऐसे मकड़जाल को सुरेंद्र शर्मा का कलम से भेदने का यह प्रयास निश्चित रूप से सराहनीय है। क्योंकि लेखक इन स्थितियों को तोड़ना चाहता हैं, इसलिए वह आज के भयावह यथार्थ का बार-बार उद्घाटन करता है, जो गद्य और व्यंग्य का अनूठा समन्वय है। इनकी रचनाओं को यही समन्वय और अधिक संपन्न बनाता है, जिससे ये रचनाएँ गद्य का प्रयोगशील और सृजनात्मक रूप ले लेती हैं।
‘संसद के हमले में दफन हुआ ताबूत’, ‘अमेरिका का जूता’, या ‘अच्छाई पर छाया है- बुराई का कोहरा’ इसी सक्रिय रचनाशीलता का सबूत हैं। ऐसे ही आलेखों से भरा हुआ है। उनका यह पहला गद्य संकलन।
महत्वपूर्ण यह भी है कि इन आलेखों की भाषा बहुत सीधी-सच्ची है। इसमें भाषायी दाँव-पेंच नहीं है। इसलिए यह मन और सोच को सजगता से बाँधती है। कथन का यह ढंग और ढब भी सुरेंद्र शर्मा के अनूठे गद्य की रचनात्मकता का परिचायक हैं।
मैं ही क्या, पूरा हिंदी संसार इस गद्य रचना का भरपूर स्वागत करेगा; और यह पाठक और लेखक की परस्परता का एक नया इतिहास भी लिख दे तो मुझे आश्चर्य नहीं होगा।
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।


5/ 116, इरोज गार्डन,
सूरज रोड, नई दिल्ली-110044


गद्य में व्यंग्यः नए तेवर के संग



साहित्य समाज का दर्पण है। जैसी उनकी सुरूप-कुरूप आकृति-विकृति होगी, वैसी ही दर्पण में दिखाई देगी। दर्पण के एक छोर से ही हम देखते हैं, या देखते रहे हैं, किंतु सुरेंद्र शर्मा के गद्य का दर्पण दोनों छोरों से देखने-दिखाने वाला है। उनका एक छोर जैसा समाज है वैसा दिखता है, दूसरे छोर से जैसा उसे होना चाहिए, वैसा। पहला छोर अत्यंत घिनौना, अप्रिय और अहितकर है लेकिन दूसरा मनमोहक आनंदप्रद और श्रेयकर। यह दर्पण लेखक का अपना आविष्कार है।

प्रस्तुत संकलन का शीर्षक चकित करने वाला किंतु आकर्षण है- कबीर की उलटबाँसी जैसा-‘बुद्धिमानों की मूर्खताएँ’ अत्यंत सटीक एवं वक्रोक्तिजन्य गूढ़ार्थ प्रतिपन्नता से संयुक्त है। यह एक सार्वभौम सत्य है कि संसार में जितनी विनाशलीलाएँ, रक्तपात और मानवताविरोधी क्रूर कृत्य हुए हैं।– वे सब बुद्धिमानों की ही देन हैं। मूर्ख तो अपनी मूर्खता से केवल अपना ही अहित कर सकता है।
लेखक की उर्वरा नई सोच और उस सोच-संस्थापना के नए तेवर को पढ़कर एक झटका-सा लगता है कि ऐसा लगता है कि ऐसा तो आज तक कभी नहीं पढ़ा यह तो परंपरागत मान्यताओं को ध्वस्त करने का दुस्साहस है ! किंतु धीरे-धीरे पाठक की विवेक बुद्धि स्वीकार करने लगती है कि बात तो ठीक है; और यह ठीक है। जिन विषयों पर प्रस्तुत संकलन के लेख हैं, अन्य लेखकों ने भी उन विषयों पर लिखा है। किंतु सुरेंद्र की विचार-प्रक्रिया की समग्रता अन्य लेखकों से उसे अलग करती है। उसके लेखन में कहीं भी विचारों का पिष्ट-पेषण, चर्वित-चवर्ण या कथि-कथन नहीं है। कोई पूछे कि सुरेंद्र का लेखन किस लेखक-जैसा है तो मैं कहूंगा कि उसका लेखन उसके लेखन-जैसा ही है। उसकी अपनी शैली है और -‘शैली लेखन का छायाचित्र है।’

संकलन के सभी लेख ‘दैनिक भास्कर’ के साप्ताहिक स्तंभ में प्रकाशित हुए हैं। अधिकतर लेख सामयिक घटनाओं पर लिखे गए हैं, किंतु इनमें से कुछ लेख देश-काल की सीमा को बाँधकर सार्वभौम और सार्वकालिक हो गए हैं। अखबारों में लेख या स्तंभ लिखने वाले लेखकों के लेखन से पाठक अंदाजा लगा लेते हैं कि यह लेखक किस राजनैतिक दल, संप्रदाय या व्यक्ति के प्रति पूर्वाग्रह-ग्रसित है। सुरेंद्र इस पूर्वाग्रह से सर्वथा मुक्त है।

ना वो किसी का पक्षधर है ना आलोचक। वह उस हर व्यक्ति या विचार के विरोध में है जो मानवता के मूलभूत सिद्धान्तों और आचार-संहिता का हनन करते हैं और उनका पक्षधर है जो मनुष्यता के मानदंडों की पैरवी और रक्षा करते हैं। उसके लेखन का सार और केद्रबिंदु शुद्ध मानवतावादी है। उसके मन में या किसी के प्रति न ईर्ष्या है न ही आसक्ति, वह उसकी विचारशैली पर आपत्ति या प्रतिपत्ति करता है। आप देखेंगे कि एक लेख में जिस व्यक्ति पर व्यंग्य- बाण छूट रहे हैं दूसरे लेख में उसी पर पुष्पवर्षा हो रही है, क्योंकि पहला लेख लिखने से पूर्व वह व्यक्ति संकीर्ण तथा स्वार्थ से लिप्त भाषा बोल रहा था और वही व्यक्ति दूसरे लेख से पूर्व मानवता का हित करने वाली अंतरात्मा की बात कह रहा था।

सुरेंद्र वाकपुट तो है ही, वह उतना चतुर वाक्यपटु भी है। यह इन लेखों को पढ़कर पाठक समझ जाएँगे। उसके गद्य की शैली सामासिक है, उसके अनुरूप ही उसने छोटे, चुस्त और नपे-तुले वाक्यों का प्रयोग किया एक कंजूस के धन-खर्च करने की भाँति शब्दों की फिजूलखर्ची से स्वयं को बचा लिया जाता है। भावों और सूक्तियों का प्रयोग यत्र-तत्र साभिप्राय ढंग से किया है। कुछ मुहावरे और उक्तियाँ तो अपने कौशल से स्वयं निर्मित कर दी हैं। जैसे-हिंदी के कवि की पहचान आरंभ से ही ‘दयनीय रही है देयनीय नहीं’, या ‘कलाकार शब्द मूलतः कलहकार का अपभ्रंश है’-इसलिए कलाकार, सरकार, पत्रकार आदि जितने भी कारकारात्मक जीवनधारी पदार्थ हैं, कलह की करते रहते हैं।

लेखक ने कलापक्ष की ओर अधिक ध्यान नहीं दिया है, विचार और संवेदना उनके लेखन का प्रधान पक्ष है। इसलिए काल्पनिक चित्रों के मायाजाल या अलंकारों के चकारात्मक चक्कर में पड़ने का उसने प्रयत्न नहीं किया है। किंतु यदि भावों का वेग प्रबल और उत्स प्रस्रवण की भाँति शुद्ध हृदय की संवेदना से निस्सृत हुआ हो तो भाषा स्वयं संगीतमय, आलंकारिक और सौंदर्य-संपृक्त हो जाती है, क्योंकि-भाषा सदैव भावानुर्त्तिनी होती है।

लेखों में जहाँ हास्य का लास्य है, वह उन्मुक्त प्रफुल्लता और विनोद की सुवासित वाटिका के सुमनों की तरह मनमोहक भी है। स्मित से अट्टाहास तक उसके हास्य के व्यायामरहित आयाम हैं हास्य कहीं भी हास्यास्पद होने की स्थिति में नहीं है। बात में से निकालकर कहीं सावन-भादों के मेघों की भाँति मंद मुस्कान की बरसात करता है तो कहीं पर्वतीय प्रपात की तीव्र हास्य का शुद्ध प्रतिपात। लेखक मूल रूप में कवि है। वह यदि गद्य लिखता है और उसमें सफल सिद्ध होता है तथा परंपरागत चलन को छोड़ नई राहों का अन्वेषण कर दिशाएँ खोजता है तो सफल गद्यकार होने के साथ-साथ एक परिपक्व कवि होने का भी प्रमाण है, क्योंकि गद्य कवि की कसौटी है-‘ गद्यं कविनां निकषः वदंति।’

सुरेंद्र शर्मा कुछ लिखे और घरवाली बीच में न आए यह असंभव ही नहीं उनके लिए अशोभनीय भी है, क्योंकि कवि के रूप में उनकी ख्याति ‘पत्नी जी ! के कारण ही है। किंतु उनके लेखों में पत्नी ने हास्य का विषय बनाने के लिए नहीं, अपितु लाक्षणिक चातुर्य से लेखक के कथन की पुष्टि करने के लिए तथा उसकी मान्यता पर मोहर लगाने के लिए प्रवेश किया है।

लेखक के व्यंग्य की धारा ‘क्षुरस्य धारेव’ पैनी है किंतु इतनी घातक नहीं कि किसी की भावनाओं का रक्तपात कर दे। समाज के सभी वर्गों की दुष्प्रवृत्तियों और दुराग्रहों पर उनके व्यंग्य-बाण प्रहार करते हैं। वह अपने व्यंग्य के कटाक्ष से समाज और व्यक्ति के गलित-पलित रुग्ण अंगों की शल्य-चिकित्सा करने के चिकित्सक-धर्म का निर्वहन करता है। उसकी शल्प-प्रक्रिया राजनेताओं, समाज-सुधारकों, धर्माचार्यों और मानव-संवेदना को क्षतिग्रस्त करनेवाले देश-विदेश के सभी प्रपंचकों तक प्रसारित है। लेखक का लक्ष्य उनकी कमियों को उजागर करना ही नहीं, समुचित समाधान सुझाकर, उनको सुधारकर समाज के स्वरूप को शोभनीय बनाना है।

लेखक के व्यंग्यों द्वारा कही गई, सुझाई गई हित की बातें यदि किसी को अहितकर लगें तो यह उसकी कलम का या उसके ईमानदार लेखक-धर्म का दोष नहीं है। दोष उन महिमामंडित महानों तथा चापलूसों और निजी स्वार्थो से घिरे कर्णधारों का है जो सत्य से मुँह चुराते हैं। सत्य की वाणी, सुधार की धार कुछ कटु और चुभनेवाली तो होगी ही, क्योंकि
-

‘हितं मनोहारी च दुर्लभं वचः।



सुरेंद्र शर्मा को प्रस्तुत संकलन के लिए बधाई ! भविष्य में ये इससे भी अधिक संपुष्ट और धारदार व्यंग्य से हमें प्रफुल्लित और आंदोलित करते रहें, ईश्वर से यही मेरी कामना है। अलम् अति विस्तरेण।

-ओम प्रकाश ‘आदित्य’

कठघरे में


कमलेश्वर

जो मुझसे इन लेखों को लिखवाने में एक मात्र जिम्मेदार हैं, जिन्होंने अधिकार के साथ मुझसे यह करवाया। उन्होंने कहा तो कलम पकड़ ली। अब-भूल-चूक लेनी-देनी।

राजकुमार कृषक

मैं इतना आलसी व्यक्ति हूँ कि अगर हाथ और मुँह में ज्यादा दूरी होती तो भूखा ही मर जाता। पर ये हैं कि इस बिखरे और कठिन कार्य को बड़ी सहजता से आप सब तक पहुँचाया।

दैनिक भास्कर

जिसने लाखों का घाटा उठाकर भी मेरे लेखों को छापा-अगर वो चाहते तो इसकी जगह विज्ञापन भी छाप सकते थे। उन्हें विज्ञापन के पैसे मिलने तो दूर, लेखों का पारिश्रमिक भी देना पड़ गया। ऐसी बातें ही ऐसी कहावतों को जन्म देती हैं कि देने पड़ गए !

मेरी जुबान

जो इन लेखों को बोलती रही और साथ लेती रही हृदय का, और तिरस्कार करती रही बुद्धि का, ताकि ये लेख कुटिलता से बचे रहें और सहजता से भरे रहें।

वेद प्रकाश

जो मेरे मुँह से निकले शब्दों को कलमबद्ध करता रहा। खुद भी एक अच्छा कलमकार है, इसलिए मेरी वाणी को जब जरूरत समझता, कलम कर देता था ! मेरे नब्बे प्रतिशत लेखों का पहला श्रोता भी, पहला लेखक भी, और पहला पाठक भी।

पुनश्च

बाकी दस प्रतिशत लेखों के अभियुक्त हैं- विनय विश्वास, अरुण जैनिनी, महेंद्र अजनबी, डॉ. सीता सागर इत्यादि और मेरी पत्नी सविता शर्मा और पुत्र आशीष आदि।

ओमप्रकाश ‘आदित्य’

हास्य-व्यंग्य के महान वैज्ञानिक, जिनकी प्रयोगशाला में मैंने इन लेखों को, जिस दिन लिखे, उसी दिन जँचवाया।

साहित्यक खदानें

जो हमारे साहित्य की कभी की भी पीढ़ी रही हो और जिनकी लेखनी या मुख से निकला कोई भी विचार, जिनका मैंने लेखों में उपयोग किया है।

शरद जोशी

अगर आज वो होते, तो मैं इन लेखों को लिखने से बच जाता और लिखता भी तो एक आशीर्वाद भरा हाथ मेरी लेखनी पर और होता।

अन्य उपकरण

काग़ज़, कलम, चाय, नमकीन, पानी, सोडा आदि।


हर चीज फिक्स है यहाँ


पूरा देश परेशान है मैच फिक्सिंग को लेकर ! देखा जाए तो यह बावेला मनोज प्रभाकर ने खड़ा किया, मैच फिक्सिंग को उजागर करके। आज यह प्रकरण पूरे देश में फैला है। हर कोई मैंच फिक्सिंग की बात करता है। यूँ देखा जाए तो मेरी नजर में इसमें सबसे बड़ा अपराधी मनोज प्रभाकर है, क्योंकि उसे जिस दिन मैच फिक्सिंग के बारे में पता लगा, उसी क्षण उसने पूरे देश को इस बारे में क्यों नहीं बताया ?


सन् 1994 से आज छह साल तक मनोज की चुप्पी यह बताती है कि इन सालों में उसने चुप रहने की कितनी कीमत पाई होगी ! आज छः साल बाद उसने बताया कि उसे भी रुपयों की पेशकश की गई थी, पर उसने यह इसलिए स्वीकार नहीं की थी, कि वह देशभक्त था। मैं पूछता हूँ कि उसमें अगर राष्ट्रीयता की जरा भी भावना थी तो जिस क्षण उसे रुपयों की पेशकश की गई थी, उसी क्षण उसे बता देना था।

मतलब साफ है। अगर आपको लगातार भारतीय टीम में खेलने का मौका मिल रहा होता तो आपकी राष्ट्रीयता भी चुप हो जाती और आप भी। सीधी-सी बात है, जिस बात में व्यापार आ जाता है, उसमें लेन-देन होगा ही। फिर चाहे वह राजनीति हो, चाहे वह धर्म हो, चाहे खेल हो। अब ऐसा लगता है कि देश में जैसे क्रिकेट के नाम पर डब्लू-डब्लू-एफ की कुश्तियाँ लड़ी जा रही हैं और पूरा देश उसको असली मानकर लुटा जा रहा है। जिस खिलाड़ी को देखो, उसकी शर्ट पर स्टीकर लगे हैं विज्ञापन कंपनियों के ! अब वह दिन भी दूर नहीं, जब स्टीकर्स की शर्ट्स बनने लगेंगी। हम सब प्रायोजित हो जाएँगे। हमारी हँसी, हमारा रुदन, हमारी राष्ट्रीयता, हमारा प्यार, सब कुछ प्रायोजित हो जाएगा।

राजनीति की ही बात देख लीजिए, वहां क्या चीज फिक्स नहीं है, यह भी फिक्सिंग पर निर्भर है। झारखंड रिश्वत कांड के लिए पी.वी. नरसिम्हा राव कटघरे में खड़े कर दिए, क्योंकि उनसे कुछ सांसदों ने पैसे लेकर राजनीति की मैच फिक्सिंग की थी। जिन्होंने पैसा लिया वह फँस गए लेकिन जिन्होंने पैसे के बजाये मंत्री-पद लिया, वह बच गए। सीधा-सा मतलब यह है कि ‘कैश’ में कितना ही ले लो, आप फँस जाओगे, और दूसरे रास्ते से आप चार गुना ज्यादा भी ले लो तो बच जाओगे। ये उत्तर प्रदेश की सरकार, जिसमें हर निर्दलीय मंत्र है, उस पर कहीं कोई उँगली नहीं उठाता। बिहार सरकार में सारे कांग्रेसी विधायक मंत्री हो गए। कोई उस पर भी बात नहीं करता ! यह दूसरे ढ़ंग की रिश्वत नहीं तो और क्या है।

सौदेबाजी के मामले में हम आज तो क्या, जन्म-जन्मांतर से माहिर हैं। पाँच रुपए का रिश्वत-रूपी प्रसाद चढ़ा हनुमान जी से सौदा करते हैं कि वह हमें पास करा दे। बात बनती नहीं दिखती तो रिश्वत की राशि ग्यारह, इक्कीस, एक सौ एक रुपए तक बढ़ा देते हैं। आज हर कोई सौदेबाज हो चुका है। सौदेबाजी हमारी रगों में बसी हुई है, तो खेलों में उसके प्रवेश पर इतना हो-हल्ला क्यों ? खेल में सौदेबाजी पर आज पूरे टी.वी चैनल अपना कार्यक्रम देने में लगे हैं। देश और विदेश के सारे अखबार इस पर अपने पन्ने खराब कर रहे हैं। वजह यही है कि सौदेबाजी को दिखाकर इन सबकी विज्ञापनों से अच्छी धंधेबाजी हो रही है।

हम सोच-समझकर कोई काम नहीं करते और काम करने के बाद में भी यह नहीं सोचते कि हमने ठीक किया है या गलत ! तकलीफ यही है दोस्त, इस देश में हम खेलों को गंम्भीर समस्या समझते हैं और गंभीर समस्याओं को खेल समझ लेते हैं।

14 मई, 20000

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